यह संसार का नियम है कि जिस वस्तु या गुण कि दुर्लभता हो या धीरे-धीरे दूर्लभ हो रही हो उसकी चर्चा सबसे अधिक होती है। आज इस दौर में मनुष्य और मनुष्यता की परिभाषा गढ़ी जा रही है ये सत्य नहीं है कि मनुष्य है तो मनुष्यता है मेरे मत से मनुष्यता है तो मनुष्य है अथवा दोनों एक दूसरे के संपूरक है इस दौर में भले ही मनुष्यता की परिधि संकुचित होती जा रही है परंतु मनुष्य इसके भावो कि और अधिक आकर्षित होता है । जब भी कह दिया जाता है मनुष्यता ही सबसे बड़ा धर्म है तो ये बात निसंकोच ह्यदय स्वीकार कर लेता है विभिन्न भाषाओं ने विभिन्न शब्द दिये है । कोई इंसान कोई ह्यूमन तो विज्ञान ने होमो सैपियंस । हालांकि होमो सैंपियंश से ही ह्यूमन आया है । यहां इंसान से इंसानियत, ह्यूमन से ह्यूमनिटी है परंतु मेरा मानना है कि किसी भी क्षेत्र या सभ्यता कि भाषा, उसके शब्द और उनके अर्थ वहां के मूल्यो से बने होते है और इस देश (भारत) कि संस्कृति तो विश्व मे अद्धितीय रही है और इसीलिए दुनियां कि किसी भी भाषा कि तुलना उसका अनुवाद भारत कि किसी भी भाषा से नही किया जा सकता है । सबसे बड़ी गलती या मुर्खता भाषायी अनुवाद करने वालो ने कि है । यदि "इंसान" शब्द कि बात करे तो ये इस्लामिक सभ्यता से, "ह्यूमन" शब्द लेटिन से बिगड़ते बिगड़ते अंग्रेजी सभ्यता से आया है और हम इन सभ्यताओ का इतिहास उठाके देखे तो इनकी इंसानियत इनकी ह्यूमनिटी ह्यूमन / इंसान से प्रारंभ होती है और ज्यादा से ज्यादा आध्यात्मिक मान्यताओ पर खत्म हो जाती है जबकी भारतीय सनातन संस्कृति कि मनुष्यता प्रारभं ही "वसुदैव कुटुबंकम" से होती है और जो व्यक्ति/मनुष्य इस भाव को पा लेता है उसे यंहा "ईश्वर" मान लिया जाता है। फिर कैसे मनुष्यता को ह्यूमनिटी कहा जा सकता है ? बहोत से शब्द है जो प्रगाढ़ गूढ़ अर्थ संचित करते है । उदाहरण स्वरूप राष्ट्र को मुल्क,नेशन या कंट्री नही कहा जा सकता है । मुल्क या नेशन कोई भूमि का टुकड़ा भी हो सकता परंतु राष्ट्र एक जीवतं स्वरूप है जिसे "भारत माता" कहा जा सकता है । राष्ट्र जीवन मूल्यो और संस्कृति के समावेश से रिक्त नही हो सकता है ! इस राष्ट्र को शब्दो मे परिभाषित करना असभंव है अतः जिस प्रकार मानवता को ह्यूमनिटी राष्ट्र को नेशन नहीं कहा जा सकता उसी प्रकार शिक्षा को एजुकेशन ज्ञान को नॉलेज और मां को मदर पिता को फादर/डेड, श्रीमती को मिस श्रीमान को मिस्टर, गुरू को टीचर आचार्य को प्रोफेसर नहीं कहा जा सकता । यह चर्चा का विषय है और मैं अपने विचार लिखता हूं मुझे ना किसी को प्रसन्न करना है ना किसी के तिरस्कार का भय । विश्व में कितनी ही सभ्यताएं आए जाए कितने नए मानक स्थापित हो अथवा नष्ट हो परंतु सत्य शाश्वत है और शाश्वत सनातन है। मुझे अपनी संस्कृति सभ्यता अपने राष्ट्र अपने धर्म पर आगाध गर्व है प्रेम है । वर्तमान में ऐसा करना है ऐसा भाव रखना पिछड़ापन हैं ऐसे लोगों को अक्सर कम सुना जाता है हम उस दौर में रहते हैं जिसमें हिंदी अंग्रेजी में लिखी जाती है जहां स्वाभिमान से बढ़कर धन दौलत है। ह्यूमनिटी को मनुष्यता से जोड़ने वाले कहते हैं इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है । उनको पहले धर्म को समझना चाहिए और सत्य यही है कि धर्म, मजहब और रिलीजन से भिन्न है और यदि वो यंहा धर्म को पुजा पद्धति,धार्मिक मानको से जोड़ते है तो मैं उनसे पुछना चाहूंगा कि जो धर्म संस्कृति "वसुदैव कुटुबंकम" "अहिंसा परमो धर्म" और "सर्वे भवंतु सुखिनः" जैसा भाव सिखाती हो वो मनुष्यता से छोटी कैसे हो सकती है ?
मनुष्यता कि परिभाषा अत्यंत व्यापक है परंतु इसे एक पंक्ति यूं कहा जा सकता है
"मनुष्यता वह गुण है वह व्यवहार जो आप यदि स्वयं के साथ नही कर सकते वह दुसरे किसी प्राणी प्रकृति के साथ नही कर सकते" ।
और ये परिभाषा सेक्यूलर्स तथाकथित मानवाधिकारो के गले से नही उतरती ।
लेखक ~ कुं. पुष्पेंद्र सिंह
स्वतंत्र कलम से
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